इलाहाबाद का नाम जल्द ही एक बार फिर से प्रयागराज हो जाएगा। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसकी घोषणा 13 अक्टूबर 2018 को कुंभ मार्गदर्शक मंडल की बैठक में कर दी है।
इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयाग करने की मांग संत समाज काफी दिनों से करता आ रहा था। राज्यपाल रामनाईक का भी तर्क था कि जहां दो नदियों का संगम होता है, उसे प्रयाग कहा जाता है। उन्होंने उदाहरण भी दिया कि उत्तराखंड में देवप्रयाग, कर्णप्रयाग और विष्णुप्रयाग हैं। ऐसे ही इलाहाबाद में भी दो पवित्र नदियों का संगम है, इसलिए इसे प्रयागराज कहा जाता है, लेकिन दस्तावेजों में भी यही नाम दिया जाना जरूरी था।
अकबर ने प्रयाग का नाम बदल कर रखा था अल्लाहाबाद
अकबर 1583 ईस्वी के आसपास प्रयाग आया था। उस समय उसने अपनी सल्तनत के
विस्तार के तहत संगम तट पर एक किले का निर्माण कराया। यह किला संगम के पूर्वी छोर
पर है। इसका उद्देश्य जल मार्ग द्वारा व्यापार की सुविधा को सुगम बनाना था, क्योंकि यहां से बंगाल और दूसरे प्रदेशों तक
व्यापार आसानी से संचालित किया जा सकता था। किला निर्माण के दौरान अकबर ने यहां
प्रवास किया था, उसी
समय उसने प्रयाग का नाम बदल कर अल्लाहाबाद रख दिया, जिसे बाद में इलाहाबाद कहा जाने लगा।
तीर्थों के तीर्थ प्रयाग के मायने
प्रयाग अथवा तीर्थराज प्रयाग के संबंध में पुराणों का मत है
कि प्रयाग इसलिए कहा गया है कि वह समस्त तीर्थों में सर्वोत्तम और उत्कृष्ट तीर्थ
है। देवताओं की यज्ञभूमि होने के कारण उसे प्रयाग कहा गया है। यज्ञादिक और
दान-पुण्य के के सर्वथा उपयुक्त समझकर स्वयं विष्णु भगवान और त्रिलोकपति शंकर ने
प्रयाग नाम दिया है। महाभारत के अनुशासनपर्व में कहा गया है कि माघ-मास में तीन
करोड़ दस हजार तीर्थ प्रयाग में एकत्र होते हैं। प्रयाग शब्द की उत्पत्ति यज् धातु
से है, जिसमें प्र उपसर्ग प्रकृष्ट, श्रेष्ठ
तथा याग शब्दवाची है। इस संज्ञा के निर्वचन के विषय में महाभारत के पूर्वोक्त
विचार का समर्थन अन्य ग्रंथों से भी होता है। ब्रह्मपुराण, मत्स्यपुराण में प्रयाग का वृहद् वर्णन है।
प्रयाग में क्या देखें
प्रयोग पौराणिक और पवित्र नगरी तो है ही, यह मौर्य और गुप्त साम्राज्य से लेकर मुग़ल
साम्राज्य तक समृद्धशाली इतिहास से भरा हुआ है।
संगम : इस
स्थान पर गंगा, यमुना और सरस्वती नदी का मिलन होता है। यहां साधु सन्तों को
हमेशा पूजा पाठ करते हुए देखा जा सकता है। 12 साल में लगने वाले कुंभ मेले के अवसर पर संगम विभिन्न
गतिविधियों का केन्द्र बन जाता है। यहां से सूर्योदय और सूर्यास्त का नजारा बेहद
मनमोहक लगता है।
हनुमान मंदिर : संगम के निकट स्थित यह मंदिर उत्तर भारत के मंदिरों में
अद्वितीय है। मंदिर में हनुमान की विशाल मूर्ति आराम की मुद्रा में स्थापित है।
यद्यपि यह एक छोटा मंदिर है फिर भी प्रतिदिन सैकड़ों की तादाद में भक्तगण आते हैं।
नदी से नजदीक होने कारण बाढ आने पर यह मंदिर जलमग्न हो जाता है।
शिवकुटी : गंगा
नदी के किनार स्थित शिवकुटी भगवान शिव को समर्पित है। शिवकुटी को कोटीतीर्थ के रूप
में भी जाना जाता है। सावन माह में यहां एक मेला लगता है।
भारद्वाज आश्रम : यह
आश्रम संत भारद्वाज से संबंधित है। कहा जाता है भगवान राम चित्रकूट में बनवास जाने
से पहले यहां आए थे। वर्तमान में यहां भारद्वाजेश्वर महादेव, संत भारद्वाज और देवी काली का मंदिर है।
पातालपुरी मंदिर : इस भूमिगत मंदिर में ही
अक्षय वट है । ऐसी मान्यता है कि यहां की यात्रा भगवान् राम
ने की थी।
अक्षय वट : पातालपुरी
मंदिर के भीतर अमर वृक्ष है। इस
वृक्ष का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। यह वृक्ष बहुत नीचे की ओर स्थित है। यात्रियों को पातालपुरी मंदिर, अक्षय वट और अशोका वृक्ष देखने के लिए अनुमति लेनी पड़ती है।
शंकर विमान मंडपम : यह मंदिर 130 फुट ऊंचा है। यह चार स्तम्भों पर टिका है।
यहां कुमारिल भट्ट, जगतगुरु शंकराचार्य, कामाक्षी देवी (लगभग 51
शक्तिपीठ के साथ), योगसहस्त्र लिंग (लगभग 108 शिव के साथ) की मूर्तियां हैं ।
मनकामेश्वर मंदिर : यह सरस्वती घाट के पास यमुना
नदी के तट पर स्थित है। यह यहां के प्रसिद्ध शिव मंदिरों में से एक है।
अशोक स्तम्भ : अशोक
स्तम्भ बलुआ पत्थर का बना हुआ है। इसकी
ऊचाई 10.6 मीटर है। इस स्तम्भ पर कई शिलालेख हैं। जहांगीर द्वारा लिखवाया गया
शिलालेख पर फारसी में हैं -'सिंहासन के लिए अपने परिग्रहण के उपलक्ष्य में' ।
खुसरो बाग : इस विशाल बाग में खुसरो, उसकी बहन और उसकी राजपूत मां का मकबरा स्थित है। खुसरो
सम्राट जहांगीर के सबसे बड़े पुत्र थे। इस पार्क का संबंध भारत के स्वतंत्रता
संग्राम से भी है।
स्वराज भवन : इस
ऐतिहासिक इमारत का निर्माण मोतीलाल नेहरू ने करवाया था। 1930 में उन्होंने इसे राष्ट्र को समर्पित कर दिया
था। इसके बाद यहां कांग्रेस कमेटी का मुख्यालय बनाया गया।
आनंद भवन : एक जमाने में आनंद भवन भारतीय राजनीति में अहम स्थान रखने
वाले नेहरू परिवार का निवास स्थान था। आज इसे संग्रहालय का रूप दे दिया गया है।
यहां पर गांधी और नेहरू परिवार की पुरानी निशानियों को देखा जा सकता है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय : इलाहाबाद
उच्च न्यायालय भारत का ही नहीं एशिया का सबसे बड़ा उच्च न्यायालय है।
पब्लिक लाइब्रेरी : चन्द्रशेखर आजाद पार्क के अंदर स्थित यह लाइब्रेरी शहर की
सबसे प्राचीन लाइब्रेरी है। 1864 में स्थापित यह लाइब्रेरी वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
यहां बहुत सी दुर्लभ पुस्तकें देखी जा सकती हैं।
मिन्टो पार्क : सफेद
पत्थर के इस मेमोरियल पार्क में सरस्वती घाट के निकट सबसे ऊंचे शिखर पर चार सिंहों
के निशान हैं। लार्ड मिन्टो ने इन्हें 1910 में स्थापित किया था। 1 नवम्बर 1858 में लार्ड कैनिंग ने यहीं रानी विक्टोरिया का लोकप्रिय
घोषणापत्र पढा था।
इलाहाबाद म्युजियम : चन्द्रशेखर आजाद पार्क के
निकट स्थित है। इस संग्रहालय का मुख्य आकर्षण निकोलस रोरिच की पेंटिग्स, राजस्थानी लघु आकृतियां, सिक्कों और दूसरी शताब्दी से
आधुनिक युग की पत्थरों की मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध है। संग्रहालय में 18 गैलरी हैं।
जवाहर प्लेनेटेरियम : आनंद भवन के बगल में स्थित इस प्लेनेटेरियम में खगोलीय और
वैज्ञानिक जानकारी हासिल करने के लिए जाया जा सकता है।
चन्द्रशेखर आजाद पार्क : यह
पार्क महान स्वतंत्रता सेनानी चन्द्रशेखर आजाद को समर्पित है, जिन्होंने अंग्रेजी सेना से लड़ते हुए अपने
प्राणों की आहुति दे दी। पार्क में उनकी मूर्ति स्थापित है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय : भारत के सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में से एक है। इसके
परिसर में विक्टोरियन और इस्लामी स्थापत्य शैली की इमारते हैं।
म्योर कॉलेज : विलियम
एमर्सन द्वारा बनाया गया था । यह गोथिक और भारतीय वास्तु तत्वों की एक उत्कृष्ट
मिश्रण है।इसे 1874 में
शुरू किया और 1886 में
खोला गया है। इसमें एक 200 फीट
ऊंची चतुष्कोणीय मीनार है जो बलुआ पत्थर, संगमरमर और मोज़ेक से बनी
हुई है। इसके गुम्बद भारत - अरबी संरचना के पत्थरों से बना हुआ है ।
पत्थर गिरजाघर : यह
शानदार गिरजाघर 1870 में
सर विलियम एमर्सन द्वारा डिजाइन किया गया और 1887 में निर्मित किया गया। इस
गिरजाघर की ख़ूबसूरती प्रत्येक आगंतुक को प्रभावित करती है।
मेयो मेमोरियल हॉल : थॉर्नहिल
और मेयो मेमोरियल के पास यह हॉल स्थित है। इस बड़े हॉल में एक 180 फीट ऊंचा टॉवर है। इस मेमोरियल हॉल के इंटीरियर
डिजाइन साथ दक्षिण केंसिंग्टन संग्रहालय, लंदन के प्रोफेसर गैंबल से
अलंकृत किया गया। 1879 में बना यह हॉल सार्वजनिक बैठकों, वायसराय की स्मृति में और स्वागत के लिए बनाया गया था।
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